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व्यापार.
(१४९) लहरों उड़ा रहे है उन को दुःखी स्वधर्मी भाइयों की दया कितनी है उस का अनुमान पाठक स्वयं कर सके हैं फिर भी समाज उन्नति के लिए बड़ी बडी बमें ठोक रहे हैं समझ में नहीं पाता हैं कि वे समाजोन्नति किस को कहते है ? क्या स्वधर्मि भाइयों कि दशा सुधारे विगर समाजोन्नति हो सकेगा ? सच्चा दया का तत्त्व तो इस मे ही समाया हुमा है कि वह सबसे पहला स्वाधर्मि भाइयों की ओर लक्ष दे ?
(१३) जैन समाज का व्यापार
एक जमाना वह था कि दुनिया भर का व्यापार हमारे ही हाथ में था हमारी समाज इस के लिए मगरूर भी थी पर श्राज हमारे हाथ में क्या रहा है ? कहा जाय तो सट्टा, कमीशन दलाली और इधर से लाकर उधर बेचना अगर कुछ कारखाने और मिलें हमारे व्यापारियों के हाथ में हैं भी सही पर उन का जैन माधारण वर्ग को लाभ कितना ? हमारे निराधार भाइयों को न तो उस में नौकरी मिलती है न कोई काम सिखाए जाते हैं. फिर उन के लिए तो होना ही न होना बराबर है उन का लाभ तो अन्य लोग ही उठा रहे हैं कि जहां सैंकडो हजारों नौकर हैं और लाखों रूपये उनको दिए जाते हैं एक तरफ इसाई पारसी और पार्यसमाजी लोग अपने भाइयों के लिए हजारों लाखों क्रोडों द्रव्य व्यय कर उन के लिए हुनरोद्योग व व्यापार के कारखाने खोल उन को