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जैन जातियो के विषय प्रश्नोत्तर. (३१) यादि व्याधि और उपाधि लगी हुई है कि वह अपने बन्धन के पडदे से बहार तक भी नहीं निकल सक्त है और कितनेक अपने मानपूजा और गृह कलेश रूपी किचडमें फसे हुवे पडे है तब दूसरी तरफ शुष्क ज्ञानी और बाह्य क्रिया काण्डमें धर्म समझनेवालो का परिभ्रमन विशेष संख्या में हो रहा है, उन की क्रिया प्रवृति रेहन शेहन का अज्ञ जैनो पर कितना ही प्रभाव क्यो न पडा हो पर जैनेत्तर लोगोंने तो उन की क्रिया प्रवृति पर यह निर्णय कर लिया कि जैन धर्म का सिद्धान्त शायद यह ही होगा कि मैले कुचिले रहना स्नान नहीं करना, वनस्पत्यादि का त्याग करना, मन्दिर मूर्ति पूजना में पाप मानना. घरो से या बजार से धोवा धावा का पाणी ला कर पीना और किसी राजा राणी कि कथा को राग रागणियो दोहा ढाल चोपाइ से गा के सुना देना इत्यादि बातो को ही जैन धर्म के तत्त्व समझ रखा है क्या इस भ्रम पूर्ण मंतव्य का समूल नष्ट करने के लिये किसी भी प्राचार्यने पब्लिक में या राजा महाराजाओ कि सभा में जा कर अपना सर्वोत्तम जैन धर्म का तत्वज्ञान को समझने का प्रयत्न किया है जैसे कि पूर्वाचार्योने अपना स्मपूर्ण जीवन ही इस पवित्र कार्यों में पूर्ण कर दिया था.
जरा आंख उठा कर देखिये पूर्वाचार्योने महाजन संघ कि स्थापना समय से ले कर विक्रम कि तेरहवी शताब्दी तक तो जैन • धर्म को एक राष्ट्रीय धर्म बना रखा था बाद गच्छ और मतो का भेद से जैसे जैसे संकीर्णता का जोर वाडता गया वैसे वैसे जैन