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________________ (४०) जैन जाति महोदव प्रकरण छहा. धर्म राजसत्ता विहिन बनता गया। इसमें जैन जातिये बनाने. वाले प्राचार्यों का दोष नहीं है, दोष है जैन समाज की संकुचित वृति का अगर उस को आज ही हटादि जाय तो फिर भी जैन स. माज की जाहुजलाली हो सकती है। (५) प्रश्न-जैन जातियो का एक ही धर्म होने पर भी जहाँ रोटी व्यवहार है वहाँ उन के साथ बेटी व्यवहार न होने की संकीर्णता का खास कारण जैन जातियो का बांध न हीं है ? ' - उत्तर-क्या आप को पूर्ण विश्वास है कि इस कुप्रथा कों प्राचार्यश्रीने ही चलाई थी. कि तुम एक धर्मोपासक होते हुए भी शापस में रोटी व्यवहार हो वहाँ बेटी व्यवहार न करना ? अगर ऐसा न हो तो यह मिथ्या दोष उन महान् उपकारी पुरुषों पर क्यो ? वास्तव में तो आचार्य रत्नप्रभसूरिजीने क्षत्रिय ब्राह्मण और वैश्यो का भिन्न २ व्यवहार और उच्च नीचता के भेद भाव कों मीटा के उन सबका रोटी बेटी व्यवहार सामिल कर · महाजन संघ' कि स्थापना करी थी और उन का आपस में यह एक व्यवहार चिरकाल तक स्थाई रूप में रहा भी था. कालान्तर उन एक ही संस्था की तीन साखा रूप तीन टुकडे हो गये जैसे उपकेशवंश, श्रीमाजवंश और प्राग्वटवंश । यह केवल नगर के नाम से वंश कहलाया था नकी इनका व्यवहार प्रथक् २ था इतना ही नहीं पर उन के बाद सेंकडो वर्ष तक मांस मदिरादि कुन्वसन सेवी राजपुत्तादि को प्रतिबोध दे दे कर उनका खानपान भाचार व्यवहार शुद्ध बना के पूर्वोक्त महाजन संघ और उन की साखाओ में
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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