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________________ ( ६१ ) जैन जाति महोदय प्रकरण दूसरा. करना, यह मोहनिय कर्म का उदय है वह भगवान् के नहीं था मनोविज्ञान, आत्मबल, सहनशीलता, स्थिरचित्त और आत्मज्ञान इतना उत्कृष्ट था कि घौर वेदना होने पर भी उन की आत्मा का एक प्रदेश भी विचलित नहीं होता था । भगवान् महावीर के छद्मस्थपने का भ्रमन ( १ ) अस्थिग्राम ( २ ) राजगृहनगर ( ३ ) चम्पा - नगरी ( ४ ) पृष्टचम्पा ( ५ ) भद्रिकानगरी ( ६ ) आलम्बिकानगरी ( ७ ) राजगृहनगर ( ८ ) भद्रिकानगरी ( ९ ) अनार्यदेशमें ( १० ) सावत्थिनगरी ( ११ ) विशालानगरी ( १२ ) चम्पानगरी । एवं बारह चातुर्मास छद्मस्थावस्था में हुए, इन के अन्तर्गत की भूमि पर विहार करते हुए भगवान् कों अनेकानेक कठिनाईयों का सामना करना पडा जिस में भी अनार्यदेश के लोगोंने तो भगवान् से खूब ही बदला लिया था और भगवान् भी बदला चुकाने के लिये वज्रभूमि में विहार किया था । भगवान् महावीर की घोर तपश्चर्या भगवान् महावीरदेवने कठन से कठन तपश्चर्या करी अर्थात् साढाबारह वर्ष के अन्दर पूर्ण एक वर्ष भी भोजन नहीं किया इतना ही नहीं बल्कि जीतनि तपस्या करी वह सब पाणि बगर चौबीहार ही करी थी वह निम्न अङ्कित कोष्टक से ज्ञात होगा ।
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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