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________________ भगवान् महावीर. ( ६१ ) कर्मो का बदला चुकाने में आप अपना गौरव ही समझा जैसे चलती दुकान में पाक नियत का साहुकार अपने पूर्वजों का करज चुकाने में अपना महत्व समजता है । गोवाल अपना बदला लेने पर भी क्रोध के वशीभूत हो ऐसे नया कर्मोपार्जन किया कि वह वहां से मरके सातवीं नरक गया । खर नामक वैद्यने भगवान् के कांनो से खीलीयें निकाल सुन्दर चिकित्सा कर अनन्त पुन्योपार्जन किया, तत्पश्चात् भगवान् अन्यत्र विहार किया | (१) इन के सिवाय छोटे बडे सहस्रों उपसर्ग जैसे अनार्य देशमें विहार समय उन के पैरोंपर खीर पका के खा जाना कुत्तोंनें उन के मांस के लोधे के लोधे काट खाना, अनार्य लोगों से अनेक आक्रोश व बद्ध परिसह का होना गौशाला जैसेकु शिष्यों का संयोग इत्यादि. अगर कोइ यह सवाल करे कि भयंकर सर्प का • काट खाना देवकृत धूल से श्वासोश्वास रूक जाना, कांनों में खीले ठोक देना ऐसे मरणान्त कष्ट में भी महावीरदेव का एक भी प्रदेश नहीं चलना क्या यह संभव हो सक्ता है ? वेदना को सहन करना यह वैदनिय कर्म का क्षयोपशम है, आत्मभावमें स्थिर रहना यह मोहनिय कर्म का क्षय व क्षयोपशम है मजबूत संहनन होना यह शुभनामकर्म का उदय है, नहीं मरना यह आयुष्यकर्म है अर्थात् अलग अलग कर्मों का भिन्न भिन्न स्वभाव है भगवान् महावीर प्रभु के बज्र ऋषभनाराच सहन न था वेदनियकर्म का उदय होने पर भी मोहनियकर्म शान्त था जो वेदना समय दुःख मानना, हाहा
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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