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________________ ( १२० ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. 66 भगवन ! आपने यह यशोभद्र आदि मुनियोंने पूछा, बात हमें प्रथम क्यों नही प्रकाशित की। अन्यथा हम इस की वय्यावच का पूर्ण लाभ उठाते । " श्राचार्यश्रीने उत्तर दिया कि यदि यह नाना मैं पहिले बता देता तो कदाचित इस के अध्ययन में व ध्यान में कुछ खामी रह जाती । इसी कारण से मैंने तुम्हें यह बात नहीं कही । फिर श्राचार्यश्रीने विचार किया कि उस नूतन सूत्र दश कालिक को पुनः पूर्वंग तक संहारण करूँ । इसपर चतुर्विध संघने अनुरोध किया कि भगवन् ! इस पश्चम काल में ऐसे सूत्र की नितान्त आवश्यक्ता है अतएव श्राप इस सूत्र को ऐसा ही रहने दीजिये ताकि अल्प बुद्धिवाले भी इस का श्राराधन कर अपना कल्याण करने में समर्थ होवें । श्राचार्यश्रीने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर वह सूत्र उसी रूप में रहने दिया । इसी सूत्र के प्रताप से आज साधु साध्वियाँ अपना कल्याण कर रही हैं और इस नारे के अन्त तक कई प्राणी अपना उद्धार करेंगे । आचार्य श्री शिय्यंभवसूरी बड़े ही उपकारी हुए । धर्म का प्रचार आपने प्रबल प्रयत्न से किया । आचार्यश्री अपनी अंतिम अवस्था जान सुयोग्य यशोभद्रमुनि को श्राचार्य पद पर बिठाकर निवृति मार्ग के परमोपासक हो गये । आपने अपना जीवन इस प्रकार बिताया २८ वर्ष गृहवास, ११ वर्ष तक सामान्य साधु पद और शेष २३ वर्ष तक प्राचार्यपद सुशोभित कर ६२ वर्ष की आयुमें अनसन और समाधिपूर्वक कालकर वीरात् ६८ वर्षमें स्वर्ग गये । [ ५ ] पश्चम पट्टपर श्राचार्य श्री यशोभद्रसूरी प्रगाढ पण्डित
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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