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भाचार्य संमृतिविजय सरि. . (११) हुए । श्राप कुलसे तुंगीयान गोत्रिय बड़े शूरवीर थे । आपने शिय्यंभवसरी के पास दीक्षा लेकर शास्त्रों का विधिपूर्वक अध्ययन किया या। अपने अनवरत परिश्रम से प्रापने चौदह पूर्व व अनेक विभिन्न शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया था। आप अपने विषय के विशेषज्ञ थे । धर्मप्रचार कर के आपने शासनपर असीम उपकार किया । पाप बड़े वीर थे । आप ही के कारण बौद्धों का प्रचार कार्य बंद हुआ था । शास्त्रार्थ कर के बड़ी बड़ी परिषदों एवं सभाओं में आपने बौद्धों को पराजित किया था। आप के समय में जैन धर्म की विशेष ख्याति हुई । आप की अध्ययक्षता में सहस्रों साधु साध्वियों पूर्वीय बंगाल उडीसा और कलिङ्ग प्रान्तों में विचरण कर अहिंसा धर्म का विस्तार कग्नी थीं। आप के शिष्य वर्ग में कई धुरंधर विद्वान एवं शास्त्रज्ञ थे । उन में से सम्भूति विजय एवम् भद्रबाहु मुनि इन दो का नाम विशेष उल्लेखनीय है । आपने अपनी अंतिम अवस्था में सम्भूतिविजय मुनि को आचार्यपद और भद्रबाहु मुनि को मुनियों की संभाल का काम सौंपकर पूर्ण निवृति मार्ग पर ग्मण कग्ना प्रारम्भ किया। भाप २२ वर्ष गृहस्थावस्था, १४ वर्ष पर्यन्त मुनिपद एवं ५० वर्ष पर्यन्त युग प्रधान (आचार्यपद ) स्थित ग्ह ८६ वर्ष की प्रायु भोग अनशन समाधिपूर्वक जीवन समाप्त कर स्वर्ग सुख को प्राप्त किया।
[६] छटवें पट्टपर प्राचार्य सम्भूतिविजयसूरी बड़े प्रभावशाली हुए । पाप मढर गोत्रिय पूज्य प्रभाविक थे। प्राचार्यश्री यशोभद्रसूरी के पास दीक्षा ग्रहणकर गुरु कृपासे चौदह पूर्वांग का