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जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा.
अभ्यास करपने शासन की बहुत सेवा की। चारों ओर जैन धर्म का झंडा फहराया । साधु साध्वियाँ की संख्या में भी आशातीत वृद्धि हुई। अनेक साधुओं के सहयोग से प्रापने शासन के अभ्युदय में खूब परिश्रम किया । कई प्रभावशाली कार्य करके जनता का उद्धार किया । आपने अपने अंतिम समय में श्राचार्यपद पर गुरूभाई भद्रबाहु मुनि को श्रारोहित किया । फिर श्राप एकान्तवास कर श्रध्यात्म योग की उपासना करने में यत्न करते हुए परम योगी बने । श्रापने अपना जीवन इस प्रकार बिताया, ४२ वर्ष गृहवास
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पश्चात् यशोभद्रसूरी के पास दीक्षा ली, ४० वर्ष तक सामान्य मुनिपद और ८ वर्ष पर्यन्त युगप्रधान ( श्राचार्य ) पढ़ पर रहकर शासनोन्नति कर ६० वर्ष की आयु भोगकर वीगत् १५६ संवत् में समाधिपूर्वक स्वर्गधाम में प्रविष्ट हुए ।
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[ ७ ] सातवें पट्टपर प्राचार्य भद्रबाहुस्वामि महान् प्रभावशाली हुए। श्राप का जीवन मनन करने योग्य है । दक्षिण देश में श्री प्रतिष्टतपुर नगर में भद्रबाहु और बाराह मिहिर नामक दो सहोदर भाई रहते थे जो गरीब ब्राह्मण की संतान थे । जैनाचार्य यशोभद्रसूरी के पास उपदेश सुनकर उन दोनोंने वैगग्य प्राप्त कर दीक्षा ली थी । यशोभद्रसूरीने सम्भूतिविजयसूरी को श्राचार्यपद दिया जिन्होंने भद्रबाहु को बाद में प्राचार्य बना दिया था । इसपर बाराहमिहि प्रसन्न एवं क्रुद्ध हो जैन साधु के वेश को त्याग कर अध्ययन किये हुए ज्योतिष शास्त्र के ज्ञान से अपनी जीविका चलाने लगा । वह जैनाचार्यों के प्रति कृतज्ञता प्रकाशन करना भूलकर उल्टा उन की