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मूरिः श्री देवगुप्तो विधुविमलयशा यः प्रतापी बभूव पीयूषस्यन्दि भियों जनपदमकरोद्भाषणे रेव मुग्धम् । शास्त्रार्थे सिद्धपुत्रं हतषडरिंगणा यश्च निर्जित्य चक्रे जैनं भूयादतिर्मे चरण कमलयास्तद्गुरोरातिहोंः ॥ ७:
चंद्रमा के मदृश विमलयशस्वी प्रतापशाली श्री देवगुप्तसूरि प्राचार्य हुए जिनकी पियुषवर्षी वाणी श्रवण कर सब लोग मंत्र मुग्ध हो गए तथा जिन्होंने सिद्धपुत्र को शास्त्रार्थ में पराजित कर जैनी बनाया जिन्होंने ट्रिपुओं के दल के मद का मर्दन किया ऐसे दुःख मिटानेवाले गुरु के चरणकमलों में मेरी प्रीति सर्वदा बढ़ती रहे । ७ ।
प्राचार्यः सिद्धमूरिस्तदनु दनुजहन्माचरज्जैनधर्म पंजाबादि प्रदेषेष्व विरतपहता सौ प्रयासेन योगी। । निर्विघ्नो यत्पनापत्तितितल उपकेशादिगच्छान्तवंशः पश्चाचार्येश्वरास्ते पमहृदयगृहे सप्रमोदा वसन्तु ॥ ८ ॥
इन के पीछे प्राचार्य श्री सिद्धसूरि हुए जिन्होंने अविरल प्रयत्न द्वारा पंजाब आदि प्रदेशों में जैन धर्म का खूब प्रचार किया ऐसे इन पिछले पांचों आचार्यों का जिन की कृपा से संसार में उपकेश वंश आजला निर्विघ्नतया चला आ रहा है, मेरा प्रणाम है । मैं प्रार्थना करता हूँ कि वे मेरे हृदयगृह में सदा इसी प्रकार निरन्तर निवास करते रहें ॥ ८ ॥