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स्याग कर स्वर्गधाम को प्रस्थान किया, उन निस्पृह योगीश्वर को मैं लक्षबार सहर्ष नमस्कार करता हूँ ॥ ४ ॥
यक्षायोपद्रवं राजगृह. पुरवरस्यापनीयोपदेशं प्रातः स्मर्यो ददौ यस्त्वगढ़ इव रुजं यक्ष देवारप्यमूरिः । चक्रे जैनं प्रयात्वा निखिल गुण निधिर्यश्च सिन्ध प्रदेश रुद्राटं ककपुत्रं च बितरतु शिवं योऽनिशं सेवकानाम् ॥ ५ ॥ प्रातःस्मरणीय यक्षदेवसूरिने, जिस प्रकार औपधि रोग को दूर करती है उसी प्रकार अपूर्व बुद्धिबलसे राजगृह नगरी के उपद्रव को दूर करते हुए यक्ष को प्रतिबोध दिया तथा सिन्ध प्रान्न में पर्यटन कर महाराज रुद्राट और कक्क कुमार को जैनी बनाया ऐसे सर्वगुणसम्पन्न गुरु हम सदृश सेवकों का सदा सर्वदा कल्याण करें ॥५॥
कुर्वन्धर्म प्रचार तदनु गुरुवरः सिन्ध देशे च देव्या बल्यर्थ नीयमानं नरपति तनयं यो ररक्ष प्रवीणः । कष्टान्मर्वान्प्रसह्याध्वनि परि पतन: कच्छ देशेऽपियश्च चक्रे धर्म प्रचारं मतिमल हतये स्तौमितं कक्क सूरिम् ॥ ६ ॥
इस के पश्चात् श्री कक्कसूरि आचार्य हुए जिन्होंने देवी के निमित्त बलिदान दिये जानेवाले राजपुत्र की रक्षा कर उसे दीक्षित किया तथा मार्ग के उपसों को सहन करते हुए कच्छ प्रान्त में जैन धर्म का प्रचुरता से प्रचार किया, ऐसे परोपकारी गुरु को मेरे मन के मैल को दूर करने की प्रार्थना करता हुआ नमस्कार करता हूँ। ६ ।