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भगवान् महावीर.
( ७.७ )
आसन कम्प उठा ज्ञानद्वारा सब हाल जान वह शीघ्र श्राया चोर गोवालको कहा रे श्रधम्म पापात्मा ! क्या तुं नहीं जानता है कि यह त्रिजगपूज्य परमेश्वर हैं इत्यादि वचनोंद्वारा गोवालको शान्त कर भगवान् से अर्ज करी, हे प्रभो ! आपपर बारह वर्ष उपसर्गोका वरसाद वरसनेवाला है वास्ते मेरी इच्छा है कि मैं आपकी सेवामें रहूं? भगवान्ने कहाँ हे इन्द्र ! यह न हुवा और न होगा कि तीर्थकर किसी दूसरो के जरिये कैवल्यज्ञान प्राप्त करे । मुझे किसी कि सहायता की आवश्यक्ता नहीं हैं । इन्द्र निराश हो अपनि तरफसे एक व्यान्तर को भगवानकी सेवामें रख दीया कि कभी मरशान्त कष्ट हो तो तुम निवारण करना । तत्पश्चात् इन्द्र भगवान् को वन्दन कर स्वर्गकि और चला गया ।
( ३ ) शूलपाणि और संगमदेवका उपसर्गोसे हृदय भेदा जाता है, हाथ थंभ जाता है, लेखनी तूट जाती है, दील दुःखी और नेत्रोंसे नदियें वह निकलती है कि उन अधम देवोंने एक रात्रिमें अनुकूल व प्रतिकूल कैसे कैसे उपसर्ग किया है। जो भ्रमरें, चिटियें, नलवें, विच्छु, सर्प, सिंह, व्याघ्रादि अनेक क्षुद्र जीवों से प्रतिकूल उपसर्ग और युवा ओरतोंके हावभाव तथा सिद्धार्थ राजा त्रिशला राणि के रूप बनाके अनुकूल उपसर्ग किया पर ताकत क्या है देवकि, की उन दीर्घ तपस्वी परमयोगि महाबीरके एक प्रदेशकोभी विचलित कर सके। जैसे वायु कितनीही जोरसे चले तो भी क्या सुमेरूको चलायमान कर सके ? अपितु कबी नहीं.
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( ४ ) एक समय श्वेतांबीका नगरीके नजदिक के जंगलसे