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________________ ( ५८ ) जैन जाति महोदय प्रकरण दूसरा. " भगवान् जा रहे थे एक गोवालने कहा प्रभो ! आप दूसरे रास्तेसे पधारिये. कारण इस अटवीमें एक भयंकर प्रकृति और दृष्टिविष - वाला चण्डकौशिक सर्प रहता है । जिसकी विषभयंकरता के मारा मनुष्य तो क्या पर पशु पक्षी भी नहीं ठेर सक्ता है, अगर कोइ अकस्मात् श्रा - जावे तों शीघ्रही भस्मिभूत हो जाता है. आप जानबुझ के आपनि आत्माको जोखम में डालनेका प्रयत्न क्यों करते हो ? भगवान्ने सोचा कि सर्पके अन्दर इतनी बडी भारी शक्ति है और वह उनका दुरुपयोग करता है अगर उसको बोध हो जावे और अपनि शक्तिका सद्उपयोग करे तो उस जीव का कल्यान हो सकता है । कारण शक्ति है सो आत्मा का निज गुण है जिस 1 शक्ति से जीव सातवीं नरक में जाने की ताकत रखता है वह उसी शक्ति से मोक्ष भी जा सक्ता है इस विचार में गोवाल की एक भी न सुन भगवान् तो सर्प की तरफ रवाने हो गये । वहां जाकर उसी सर्प की बांदी ( बिल ) पर ध्यान लगा दिया । वस, फुंकार करता हुवा सर्प बाहर आया गुस्सा के मारा उस का सब शरीर लायपुलाय हो उठा नेत्रो में विषज्वाला निकल रही थी इधर उधर देखने लगा तो एक और दीर्घ तपस्वी महान् योगि एक निडर आत्मा ध्यान में स्थित दीख पडा । फिर तो क्या था सर्प के क्रोध की सीमा तक न रही एकदम ज्वालामय हो सोचने लगा कि मेरा साम्राज्य में पशुपक्षी भी नहीं ठेर सकता है तो यह ध्रुव की माफिक निश्चल कौन है वारंवार क्रोध करता हुवा खूब जोर खा कर भगवान् को काट खाया. उस समय ""
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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