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________________ लेखक का परिचय _ (२१) व्याख्यान के अन्दर प्रापश्री भगवतीजी सूत्र सुनाते थे नथा ऊपर से पृथ्वीचन्द्र गुणसागर का गस गेचकतापूर्वक सुनाते थे । श्रोताओं की खासी भीड़ लगजाती थी। प्रापश्री के जीवन में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन करानेवाला एक कार्य भी इसी वर्ष हुआ। देवयोग से प्रापश्रीने यहाँ के प्राचीन भण्डार के साहित्य की खोजना की । श्राप को एक रहस्य ज्ञात हुना । श्री प्राचागंग सूत्र की चतुर्दश पूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु. सूग्कृित नियुक्ति में तीर्थ की यात्रा तथा मूर्ति पूजा का विवरण पढ़कर आप के विचार दृढ़ हुए । शुद्ध श्रद्धा के अङ्कुर हृदय में वपन हुए फिर तो स्फुटित होने की ही देर थी। . वहाँपर तेरहपनथियों को भी आपने ठीक तरहसे पराजित किया था और कई श्रावकों की श्रद्धा भी मूर्ति पूजा की भोर झुका दी थी। यहाँ से विहारकर भाप उदयपुर पधारे परन्तु आंखों की पीड़ा के कारण भाप भागे शीघ्र न पधार सके । इसी कारण से श्राप ३६ साढे तीन मास पर्यंत इसी नगर में ठहरे। व्याख्यान में श्री संघ की प्रत्याग्रह से श्री जीवाभिगम सूत्र बांचा जा रहा था। विजयदेव के अधिकार में मूर्ति पूजा का फल यावन् मोक्ष होने का मूल पाठ था। साधु होकर श्राप छली न बने । लकीर के फकीर न होकर सरल स्वभाव से प्रापने जैसा मूल पाठ व अर्थ में था सब स्पष्ट कह सुनाया। उपस्थित जनसमुदाय में कोलाहल मच गया। अंधभक्तों के पेट में चूहे कूदने लगे । लगे वे सब जोरसे हल्ला मचाने । मापने सूत्र के पाने शेठजी नन्दलालजी के सामने रख दिये और उन्होंने सभा
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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