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(८५) जैन जाति महोदय प्रकरण कट्टा. गिनती के धनवान हो; पर उन के धन का किस रास्ते में व्यय होता है लडकियों रूप दर्शनिक हुण्डी बटाने के तीसरे वर्ष ही देखिए, वह कैसी कंगालियत हालत में दिखते हैं ? जो जातियों बडे प्राणी से लगा कर सुक्ष्म जन्तुओ की दया कर रही थी आज वह ही जाती अपने बाल बच्चों को किस निर्दयता से लिलाम कर दुःख के दरियाव में डाल रही है इस दुष्टाचरण से हमारे नैतिक, शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, आध्यात्मिक और धार्मिक विषय का पतन हो रहा है । बुद्धि विध्वंस होने से हमको कृत्याकृत्यका खयाल तक भी नहीं रहता है, स्वोदरपूर्ति के लिये पापाचार के गुलाम बन कर के निन्दीत कार्य करने में हम तनिक भी नहीं हिचकते हैं, कन्या जैसी प्रिय वस्तु उन बुढे खंजरों के हाथ बेचने में हमें शर्म नहीं आती है । शास्त्रकार नीतिकार और दुनिया हमें कितने ही बूरे शब्दोंमें पुकारें, उस की हमें पर्वाह नहीं है, पर कन्याओं के पांच पचीस या पचास हजार लेकर हम हमारा कर्ज चुकावे, देवाला मिटावें एक दो जीमणवार कर के न्यात या पंचों को जीमा के उन रक्त संसक हाथों से मूछोंपर ताव लगाते हुए शिरे बजार फिरे, पंचो की जाजमपर बैठ कर के जाति सुधार की लम्बी २ गप्पें हांके । पर हम को कहनेवाला कौन है ?
बद किस्मत है हमारे साधारण स्थितीवालों की, कि उन के पास इतना द्रव्य नहीं है कि कन्या के लिलाम में हमारे श्रीमन्तों के बगबर बोली बोल के, अर्थात् इतने रूपैये देकर के विवाह कर सके इसी कारण से सैकड़े पैंतीस नवयुवकों को तो मा जन्म