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आचार्यश्री यक्षदेवसूरि.
(८७) था कि नर और नरेन्द्र, देव और देवेन्द्र, विद्याधर आदि आपका व्याख्यान सुनने को सदा लालायित रहते थे। आप की वाक्पटुता के कारण अहिंसा का प्रचार बहुत अधिक हुआ। भाप बड़े निर्भीक वक्ता थे। श्राप गुणों के आगार और ज्ञान के भण्डार थे।
उपरोक्त गुणों के कारण ही आप को यकायक सम्मेत. शिखर तीर्थराज की पवित्र भूमिमें प्राचार्यपदवी मिली थी। आप
आचार्य के छत्तीसों गुणों को प्राप्त करने में तथा शुद्ध पंचाचार को पालने का प्रबल प्रयत्न करने में संलग्न रहते थे और आप सदा इस बात का ध्यान रखते थे कि मेरे संघवाले भी इस प्रकार के गुणोंसे सम्पन्न हो । सब प्रान्तोंमें विचरण कर संघ को अमृतोपदेश का पान कराते थे ! सारण वारण चोयण और परिचोयण ऐसी चार पद्धति की शिक्षा देने में आप अनवरत परिश्रम करते थे । आप का प्रयत्न भी सफलीभूत होता था। जिन प्रान्तोंमें भाप विचरते थे यज्ञयागादि वेदान्तियाँ, वाममार्गियाँ एवं नास्तिकों को समझा सममा कर सत्पथ पर चलने का सिद्धान्त सतर्क बताते थे । जिस प्रकार भानु के उदय होनेसे प्रगाढ़ तिमिर का नाश हो जाता है उसी प्रकार आपके संसर्ग से कई प्राणियाँ का भ्रम दूर हुा । उधर पूर्व बङ्गालमें जहाँ कि आप अबतक नहीं पधारे थे बोद्धधर्म का विस्तृत प्रचार हो रहा था, भाप को इस लिये पूर्व की भोर विहार कर अपने सुयोग्य शिष्यों के साथ बंगाल की ओर जाना पड़ा था । उस प्रान्त में बौद्धों के साथ