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________________ (८८) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. कई शास्त्रार्यकर आपने स्याद्वाद धर्म को विजय का टीका प्रदान किया। बोद्ध लोग जगह जगहपर पराजित हुए । पूर्व बंगाल में जो दूसरे साधु विहार करते थे उन्होंने भी आप को पूर्ण सहयोग किया क्योंकि वे वहाँ की वस्तुस्थिति से खुब परिचित थे । पाठकगण ! आप को पहिले बताया जा चुका है कि प्राचार्य स्वयंप्रभसूरि से दीक्षा लेते समय विद्याधर रत्नचूड के पास जो नीलोपन्नामय चिन्तामणि पार्श्वनाथ की मूर्ति थी, वही मूर्ति दर्शनार्थ रत्नचूढ मुनिने अपने पास रख ली थी। आगे चलकर वही रत्नचूड मुनि रत्नप्रभसूरि हुए । प्रस्तुतः मूर्वि रत्नप्रभसूरि के पट्टपरम्परा से अब यक्षदेवसूरि के पास मोजूद थी । जिस समय यक्षदेवसूरि प्रतिमा के सम्मुख उपासना के लिए विराजते थे । उस समय सञ्चाइका देवी और अन्य देवियाँ दर्शनार्थ उपस्थित होती थीं । एक बार सञ्चाइका देवीने आचार्यश्री से विनती की कि आप एक बार मरूस्थल की ओर विहार करिये । मरूस्थल में भाप के पधारने की नितान्त आवश्यका है । प्राचा. र्यश्रीने देवासे पूछा कि मरूस्थल में हमारे कई मुनि विहार कर रहे हैं। फिर मेरी वहाँ ऐसी क्या आवश्यक्ता है ? देवीने उत्तर दिया कि पाप का कार्य तो आपही कर सकेंगे दूसरा नहीं । भाप एक वार मेरी प्रार्थना स्वीकार कर अवश्यमेव पधारिये । देवी का इतना आग्रह देखकर आपने मरुस्थल की भोर विहार करने का निर्णय कर लिया और थोड़े समयमें गमन भी कर दिया. उधर मरूस्थल प्रान्त में उपकेशपुर के महाराव क्षेत्रसिंह
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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