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आचार्यश्री यक्ष देवसूरि.
( ८९ )
( स्वेतसी ) को रात्रि में एक स्वप्न आया कि वह अपने लोतासा पुत्र को लिये हुए राजमहल में बैठा हुआ था । यकायक चारों ओर से अग्नि की ज्वालाएँ आती हुई दिखाई दीं । राजाने स्वप्न 1 ही में खूब प्रयत्न किया पर अग्नि से बचने का कोई उपाय नहीं मिला | अन्तमें राजाने यह भी निश्चय कर लिया कि यदि मैं स्वयं श्रग्नि में जलकर भस्म हो जाउं तो कुछ परवाह नहीं किन्तु छोटासा बच्चा किसी प्रकार बच जाय । राजा की ऐसी भावना होते ही एक महात्मा सामने से आता हुआ दृष्टिगोचर हुआ । उस महात्माने उन दोनों को जलती हुई आग से बचा लिया । इस के बाद राजा की आंख खुली तो उसको विस्मय हुआ कि यह क्या घटित हुआ । राजा विचारसागर में निमग्न हो गया । उसने अपने मंत्रि को भी यह वर्णन सुना दिया । रात्रि को रानी को भी सुनाई । रानीने असार है । इस पर तो विचार तब अपनी स्वप्न की दशा पर
राजाने अपने सपने की बात अपनी उत्तर दिया कि स्वप्न की बातें करना भी व्यर्थ है । राजा भी ध्यान नहीं देने लगा ।
आचार्यश्री यक्ष देवसूरि विहार करते हुए मरूस्थल प्रान्त में पधारे । जब यह समाचार लोगोंने सुना तो प्रान्तभर में मानन्द छा गया । फिरते फिरते आप एक दिन उपकेशपुर भी पहुँचे । सब संघने मिलकर आपका खूब स्वागत किया । आचार्य श्रीने पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी के मन्दिरों की यात्रा की । पश्चात् विशाल परिषद में आपने धाराप्रवाह उपदेश सुनाना