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________________ (९०) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. प्रारम्भ किया । आपने फरमाया कि यह संसार नाशवान है इस पर लुभाना मूर्खता है । जन्म जरा और मृत्यु का असीम कष्ट इसी संसार में होता है। आवागमन के कारण जीव को इतना दुःख सहना पड़ता है कि जिसकी पूरी कल्पना तक नहीं की जा सकती। विषय और कषाय का यहाँ पूरा साम्राज्य है। मनुष्य तो क्या अमर नाम धरानेवाले देव दानवादि भी इस सांसारिक दावानल से पूरे दुःखी हैं। यदि कोई इस कष्ट से बचानेवाला है तो वह जैन मुनि ही है । दुःखी प्राणियों, “आओ ! मैं तुम्हें वह उपाय बताउं कि तुम इस सांसारिक अग्नि में जलने से बच जागोगे । मैं इस उष्ण उर्वग भूमिसे लेजाकर तुम्हें ऐसी शीतल और सुखद स्थलपर पहुँचा दूंगा कि तुम्हारे सारे दुःख काफूर हो जावेंगे और इष्ट शांति अक्षय रूपसे प्राप्त होगी। " इत्यादि । आपके भाषण का प्रभाव श्रोताओं के अन्तःकरण पर पड़ा। विशेष असर तो महाराव खेतसी पर पड़ा । उसे वह स्वप्न ही साक्षात् प्रतीत हुआ कि यदि मुझे सांसारिक अग्निके कष्टों से बचाने में यदि कोई समर्थ है तो यही मुनि हैं। वह राजा आचार्य श्री के मुखारविन्दसे उद्भाषित होते हुए प्रत्येक गक्यपर पूरा ध्यान रखता था । राजाके पास बैठा हुआ लाखण कुँवर भी प्राचार्य श्री की ओर दृष्टिपात किए उत्सुकतासे उपदेश सुन रहा था । अपने पिता को उपदेश सुनने में तल्लीन देखकर कुँभर में अधिक उत्कंठासे उपदेश सुधाका पान कर रहा था । राजाने समामें खड़े होकर आचार्यश्री को सम्बोधन करते हुए अपने स्वप्न का हाल
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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