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________________ (६०) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. के लिये बेहन बेटी तक भी निषेद नहीं है फिर भी व्यभिचारियोंका यह तुर्रा है कि सहस्र योनि एक हजार योनिका दर्शन करनेसे मुक्ति होती है हे धराधिप ! इन दुराचारियोंने मांस मदिरा और मैथुनके वसीभूत हो एसे एसे देवि देवताओं कि स्थापना करी है वह भी पर्वत पहाड और जंगल जाडीमें की जहां स्वच्छन्दचारी मन माना अत्याचार करे तभी कोई रोकनेवाले नहीं है मांसके लिये देव देवियों और यज्ञ होमके नामसे निरपराधि असंख्य प्राणियोंके प्राण लुटके भी जनताको धर्म वह शान्ति वतला रहे है इस पर सद्ज्ञानशुन्य जनता उन पाखण्डियों कि भ्रम जालमें फस जाती है पर शास्त्रकारोंका कहना सत्य है कि यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा । शास्त्र तस्य करोति किं ।' लोचनाभ्यों विहीनस्य । दर्पणं किं करोष्यति । १ । अर्थात् जिस आदमि, के स्वयं प्रज्ञा-बुद्धि-अकल नहीं है उसके लिये शास्त्र तो क्या पर ब्रह्म भी क्या करे जैसे नेत्रहीन के लिये दर्पण क्या कर सक्ता है अगर खुद उनकेही शास्त्रोंसे देखा . जावे तो यज्ञ करना किस रीतिसे बतलाया हैइन्द्रियाणि पशुन् कृत्वा । वेदी कृत्वा तपो मयीं। अहिंसा माहुति कृत्वा । आत्म यज्ञ यजाम्यहम् । १। ध्यानाग्नौ जीव कुण्डस्थ । दममारूत दीयिते । असत्कर्म समितक्षेपे । अग्निहोत्रं कुरूतमम् । २ । . अर्थात् तपरूपी वेदी, असत्यकर्मरूपी समित ( काष्टा )
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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