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(१२) जैन जाति महोदव प्रकरण पांचवा. पुन सम्पत्ति का अधिकारी बनना मेरे लिये कठिन ही नहीं असम्भव भी था।
इस विचार के आते ही राजा सम्प्रति झरोखेसे चल कर नीचे भाया और प्राचार्यश्री के चरणकमलों को स्पर्श कर अपने भापको अहोभागी समझने लगा। उसने विधि पूर्वक वन्दना की और वह कहने लगा कि भगवन् मैं आपका एक शिष्य हूँ। भाचार्यश्रीने श्रुतज्ञान के उपयोग से सब वृतान्त जान लिया। भाचार्यश्री बोले, राजा तेरा कल्याण हो ! तू धर्मकार्य में निरत रह । धर्म ही से सब पदार्थ प्राप्त होते हैं । सम्प्रति राजा धर्मलाभ सुनकर निवेदन करने लगा कि आपही के अनुप्रहसे मैंने यह राज्य प्राप्त किया है अतएव यह राज्य अब आप स्वयं लेकर मुझे कृतार्थ कीजिये। .
प्राचार्यश्रीने उत्तर दिया कि यह प्रताप मेरा नहीं किन्तु जैनधर्म का है। यह धर्म क्या रंक और क्या राजा सब का सरश उपकार करता है । जिस धर्म के प्रभाव से मापने यह सम्पदा उपार्जित की है उसी धर्म की सेवा में यह व्यय करो । ऐसा कर ने से भाप का भविष्य और भी अधिक उज्जवल होगा । हम तो निसही जैन मुमुच है । हमें इस राज्यचद्धि से क्या सरोकार । यदि आप चाहें तो इसी राज्य की वृद्धि के सद्व्यय से जैनधर्म का सारे विश्व में प्रचार कर सकते हैं। जैनधर्म के प्रसार से अनेक जीवों का कल्याण होना बहुत सम्भव है ।