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________________ ... बाल विवाह. (५३) रित्रशील नैतिज्ञ धर्मिझ और परोपकार परायणादि अनेक सद्गुण संपन्न हुआ करती थी. वह भी अपने अमूल्य पुरुषार्थ द्वारा देशसेवा राजसेवा समाजसेवा और धर्म सेवा कर अपने जीवन को आदर्श बनाते थे और स्व पर कल्याण करने में समर्थ होते थे इत्यादि इसी सद् वरतन से हमारी समाज का 'महोदय' हुमा था. जब से काल चक्रने पलटा खाया। . धनाढ्यों के हृदय में अमिमान चाया। " बराबरी के घर की और दिल ललचाया । -बाल बच्चों के हित को स्वार्थने खाया । मुसलमानोंने अत्याचार मचाया । बाल विवाहने अपना पैर जमाया। पवित्र भारतभूमि में एकसमय मुस्लमानों का जोर जुल्म अपनी चरम सीमा तक पहुंच गया था। इतना ही नहीं पर वे विषयान्ध हो उप कुलीन स्वरूपवान, बालानों पर जबरन् अत्याचार करने का भी दुःसाहस किया करते थे, उस हालत में वे आर्य लोग अपनी अंगजाओं के सतीत्व धर्म की रक्षा के लिये छोटी २ बालिकाओं का लम ( विवाह ) कर दिया करते थे पर उस जमाने में उन को यह ख्याल स्वप्न में भी नहीं था कि भाज हम एक महान कारण को ले कर इस प्रथा को जन्म देते है। वह भविष्य में कारण मिट जाने पर भी पिछले लोग केवल लकीर के फकीर बन कर के इस कुप्रथा को अपने गले बांध लेंगे और जिस के
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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