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________________ खारवेल राजा. ___ जैन धर्मावलम्बियों की हर प्रकार से सहायता की जाती थी । एक वार आचार्यश्री सुस्थिसूरी खारवेल नरेश को सम्पति नरेशका वर्णन सुना रहे थे तब राजा के हृदय में महाराज संप्रति के प्रति बहुत धर्म स्नेह उत्पन्न हुमा । आपकी उत्कट इच्छा हुई कि मैं भी सम्प्रति नरेश की नाई विदेशों में तथा अनार्य देशो में सुभटों को भेज कर मुनिविहार के योग्य क्षेत्र बनवा कर जैन धर्म का विशेष प्रचार करवाऊँ । पर उसकी अभिलाषाएं मनकी मन में रह गई । होनहार कुछ और ही बदा था । धर्मप्रेमी खारवेल इस संसार को त्याग कर सुर सुन्दरियों के बीच जा बिराजमान हुआ। उस समय खारवेल की आयु केवल ३७ वर्षकी थी। इसने राजगद्दी पर बैठ कर केवल १३ वर्ष पर्यन्त ही राज कार्य किया। अन्तिम अवस्था में उसने कुमार गिरि तीर्थ की यात्रा की, मुनिगणों के चरण कमलों का स्पर्श किया, पञ्चपरमेष्टि नमस्कार मंत्र का पागधन किया तथा पूर्ण निवृति भावना से देहत्याग किया । - महागजा खारवेल के पश्चात् कलिङ्गाधिपति उसका पुत्र विक्रमराय हुआ। यह भी अपने पिताकी तरह एक वीर व्यक्ति था। अपने पिता द्वारा प्रारम्भ किये हुए अनेक कार्यों को इसने अपने हाथ में लिया और उन्हें परिभम पूर्वक पूरा किया । विक्रमराय, धीर, वीर और गम्भीर था। इस की प्रकृति शान्त थी इस कारण राज्यभर में किसी भी प्रकार का कलह और क्रांति नहीं होती थी । इस प्रकार इसने योग्यता पूर्वक राज्य करते हुए जैन धर्म का प्रचार भी किया था।
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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