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________________ ( २१४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. 1 आचार्य ही जिन शासन के आधार स्तम्भ हैं । आपकी श्राज्ञानुसार कार्य करने के लिये हम सब तैयार है । आपके कहने का अर्थ सब की समझ में आ गया है। इस कलियुग में जिन शासन के दो ही आधार स्तम्भ हैं - जिनागम और जिनमन्दिर । जिनागम का उद्धार मुनि लोगों से तथा जिन मन्दिरों का उद्धार श्रावक वर्ग से होता है । किन्तु दोनों का पारस्परिक घनिष्ट - म्बन्ध है, एक की सहायता दूसरे को करनी चाहिये । मुनिराज को चाहिये कि जिन शासन की तरक्की करने के हेतु तैयार हो जायें देश विदेश में घूम घूम कर महावीर स्वामी के अहिंसा के उपदेश को फैलाने के लिये मुनिगजों को कमर कस कर तैयार हो जाना चाहिये । ये बातें सब सभासदों को नीकी लगीं इस लिये बिना आक्षेप या विरोध के सबने इन्हें मानली । इस के पश्चात् सभा निर्विघ्नतया विसर्जित हुई । इस सभा के प्रस्ताव केवल कागजी घोड़े ही नहीं थे वरन् वे शीघ्र कार्यरूपमें परिणत किये गये । उसी शान्त तथा पवित्र स्थल में मुनिराजोंने एकत्रित हो भूले हुए शास्त्रों को फिरसे याद किया तथा ताड़पत्रों, भोजपत्रों आदि पत्तों तथा वृक्षों के वलकल पर उन्हें लिखना आरम्भ किया । कई मुनिगण प्रचार के हित विदेशों में भी भेजे गये थे । खारवेल नृपने जैन धर्म के प्रचार में पूरा प्रयत्न किया । जिन मन्दिरों मे 1 मेदिन मंडित हो गई तथा पुराने मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया गया। इस के अतिरिक्त जैनागम लिखाने में भी प्रचुर द्रव्य व्यय किया गया । जैन धर्म का प्रचार भारत में ही नहीं किन्तु भारत के बाहर भी चारों दिशाओं में करवाया गया ।
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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