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जैन जाति महोदय प्रकरण दूसरा.
( ५४ )
भगवान महावीर की दीक्षा ।
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भगवान् महावीर के प्रायुष्य के २८ वें वर्ष राजा सिद्धार्थ और त्रिसला रांणी का स्वर्गवास हुवा उनका वियोग से नन्दिवर्द्धन को महान् दुःख हुवा. प्रभु वर्द्धमानने उन को समझाया। भाई साहेब ! संसार में उत्पाद व्यय होना स्वभाविक बात है जन्म मरण का दुःख संसारी जीवों के साथ अनादिकाल से लगा हुवा है मातापिता का वियोग का दुःख और ध्यान कर कर्मबन्ध करना वृथा है ज्ञानदृष्टि से विचार कर भविष्य में ऐसे संबन्ध कर दुःखी न होने के उपाय को सोचिये । वह उपाय एक प्रात्मिक धर्म है इस लिये ही महात्मा पुरुष संसार का त्याग कर जंगलो की पवित्र छाया में ध्यान करना पसंद करते हैं इत्यादि जगत पूज्य वर्द्धमान के वचनों से नन्दीवर्द्धन को संतोष हुवा पश्चात् नन्दीवर्धनने पिताश्री के सिंहासनपर राज करने का आमन्त्रण किया. पर परमयोगी वर्द्धमानने स्वीकार नहीं किया तब क्षत्रियगण मिलके नन्दिवर्द्धन को राज्याभिषेकपूर्वक राजपदपर निर्युक्त किये बाद भगवान् वर्द्धमानने दीक्षाकि श्राज्ञा मागी नन्दी - वर्द्धन ने कहा प्रिय हालही में तो हमारे मातापिता का वियोग हुवा हे जिस दुःखसे हम दुःखी हे और जो कुच्छ सुख है तो तुमारी तरफका ही हैं वास्ते बी दो वर्ष तक ठेरे । भगवान बर्द्धमानने पिताकी माफीक वृद्ध भ्राताकी आज्ञाकों स्वीकार कर गृहवासमें साधु जीवन व्यतिक्रम करने लगें एक वर्षके बाद लोकान्तिक देव भगवान से अर्ज करी कि हे जगदोद्धारक प्रभो ! दुनियो में अज्ञानान्धकार फेल रहा है जनता एक महापुरुषकी रहा देख रही हैं आपके दीक्षाका