________________
( ७६ )
जैन जाति महोदय प्रकरण दूसरा.
तिचार व्रत का पालन, अध्यात्म ध्यान, उत्कृष्ट तपश्चर्या, अभयदान सुपात्रदान, चतुर्विध संघकी व्यावच्च, समाधि, विनय भक्तिपूर्वक अपूर्व ज्ञान का पढना. सूत्र सिद्धान्त की भक्ति, मिथ्या मत कों हटा के शासन की प्रभावना, तीर्थादि पवित्र भूमि कि यात्रा पूर्वोक्त वीस उतम कारणों की उत्कृष्ट भावना से आराधना के तीर्थकर नाम कर्मोपार्जन करते है या तीन भवों क पूर्व भी तीर्थकर नामकर्म के दलक एकत्र कर लेते है पर धनबन्ध तीसरे भव पूर्वक ही होते है ।
कर
(२) सब तीर्थकरों के चवन, जन्म, दीक्षा, कैवल्य ज्ञानोत्पन्न और निर्वाण कल्यान मय देवदेवि के इन्द्र महाराज करते है ऐसा निश्चय है ।
(३) सब तीर्थंकरों के चौतीस अतिशय - पैतीस वानि के गुण, अष्ट महा प्रतिहार और अनंत चतुष्ट सामान ही होते है ।
(४) भगवान् ऋषभदेव के ८ महावीर प्रभु के १२ शेष बावीस तीर्थकरों के दो दो समवमण हुवें अर्थात् जहाँ जहाँ मिथ्यात्व का अधिक जोर हो वहां वहां इन्द्र आदि देव समवसरण की दिव्य रचना करते है ।
(५) चौवीस तीर्थकरों से २१ तीर्थतक ईक्ष्वाकू कुल में मुनिसुव्रत, और नेमिनाथ भगवान् हरीवंश कुल और भगवान् महावीर प्रभु काश्यपगोत्र अर्थात् सब तीर्थकर उत्तम जाति कुल विशुद्ध वंश मे ही उत्पन्न होते है ।