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(१०) जैन जाति महोदय प्रकरण ट्या. लकी तरह एक के बाद दूसरा चक्कर लगाया ही करते हैं उसी तरह शान्ति और अशान्ति, सुख और दुःख भी समयानुकूल अपने २ स्वामित्व जमा लेते है। भारतकी असीम-चिरकालीन शान्तिका मी यही हाल हुआ कि ब्राह्मणदेवोंकी कपालीमें, कालकी क्रूरता, कुदरतके प्रकोप अथवा भवितव्यताकी विकृतिसे, स्वार्थान्धता का कीडा
आ घुसा माहिंसापरमोधर्मः से पतित हो मिथ्याधर्मका उपदेश देना प्रारंभ कर दिया, स्वार्थ लोलुपता की लिप्सा उनको खुब सताने लगी। स्वार्थ कीडेनें विप्रवोंकी निष्पक्षपातिता, साधुता, कर्मण्यशीलता, सहिष्णुता और परोपकारिता आदिसद्गुणों का भक्षण कर लिया और ऐश्वर्यके साथ विलासताकी पिपासा बढ़ती ही चली, धन और संप. त्तिकी तृष्णा पेदा हुयी, वैभव और स्वार्थका समुद्र उलट आया। फिरतो कहना ही क्या था ? संसारभरके सत्ताकी वाग्-डोर तो उनके ही हस्तगत थी, क्षत्रिय लोग तो ब्राह्मण समाजके कठपुतले थे। और खिलौनेकी तरह जिधर नचावे उधर नाचते थे। वैश्य वर्ग ब्राह्मणोंकी निरंकुशता और जुल्मी सत्तासे त्राहि २ पुकार रहे थे। बेचारे शूद्रोंकी तो किसीमें गणना भी न थी, घाससकी तरह समजे जाते थे । तीनों वर्ण पर मनमाना अत्याचार करना प्रारम्भ कर दिया, वर्णश्रृंखला छिन्नभिन्न हो गयी, धर्म कर्ममें शिथिलता पड गयी न्यायान्यायका विचार भी न रहा, हिंसामय यज्ञ यागादि धर्म प्ररूपणा शरु हो गयी, वर्णशंकर जातीयाँ पेदा होने लगी और उनके लिये मनमाना पक्षपात युक्त इन्साफ देना ब्राह्मणोनें प्रारम्भ कर दीया । इतना ही नहीं, किन्तु ऐसे २ अन्य भी बना डालें कि जीसमें कपोलकल्पित स्वार्थमय. हिंसायुक्त विधिविधान रच दिये,