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________________ (१३६) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. नाभिमान हो गया है । अब यह विशेष ज्ञान के अयोग्य है ऐसा आचार्यश्रीने जान लिया । आचार्यश्रीने साध्वियाँ को कहा कि अब जाकर स्थूलीभद्र के दर्शन कर लो। साध्वियाने जाकर वन्दना की । थोड़ी देर बाद स्थूलीभद्र मुनि वाचना के हित भद्रबाहु स्वामी के पास आए। किन्तु भद्रबाहु स्वामीने पढ़ाना नहीं चाहा । साफ साफ इनकार करते हुए कारण भी बता दिया कि बस इतना ही बान तेरे लिये पर्याप्त है । स्थूलीभद्र का ज्ञानाभिमान काफूर हो गया। हाथ जोड़ कर आचार्यश्री से क्षमा याचने लगे । श्री संघने भी सिफारिश कि यह अपराध अक्षम्य नहीं है। तथापि अन्त में अपराध क्षमा कर आचार्यश्रीने स्थूलीभद्र को शेषचार पूर्व का ज्ञान मूल मात्र का कराया। अन्त में स्थूलभद्र को भद्रबाहु आचार्यने आचार्य पद अर्पण किया। . आचार्य स्थूलीभद्रसूरिः जैन धर्म का प्रचार करने में प्रबल उद्योग करते थे । आपके प्राचार का लोहा सारे विश्व में बजता था । उत्कट ज्ञानी तथा परिश्रमी आचार्यने शासन की उन्नति करने में किसी प्रकार की भी कभी नहीं रक्खी । आप सदा शासन के उत्थान के प्रयत्न में संलग्न रहते थे। इतने पर भी आप बड़े गंभीर थे। आप अपने मन कों वश करने में संसार के लिये आज तक आदर्श रूप है। आप धीर एवं वीर थे । इन्द्रिय संयम करने में भी आपने कमाल कर दिखाया । आपने वेश्या के यहाँ चार मास पर्यन्त रहकर उस के मन पर ऐसा व्यवहारिक प्रभाव डाला कि उसने अपनी पापाचारी
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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