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________________ आचार्यश्री महागिरि। (१३७ ) जीविका वृत्ति को त्याग कर शुद्ध जैन धर्म को पाला। वही कोश्या जो वेश्या थी आप ही के प्रयत्न से श्राविका हुई। आपने अपना जीवन जिन शासन की सेवा करते हुए इस प्रकार बिताया । ३० वर्ष घर में रहकर २४ वर्ष तक मुनिपद पर रह कर प्रबल प्रयत्न करते हुई आचार्य पद प्राप्त किया । आप ४५ वर्ष पर्यन्त सूरिः पद पर रहे । अन्तमें ८६ वर्ष की आयु में अपना पद महागिरि मुनि को दे कर बराित २१५ सम्बत स्वर्गवासी में हुए। [6] नौवें पद पर आचार्यश्री महागिरि प्रवीण शास्त्रज्ञ हुए । भापका जन्म मगध देश के अन्तर्गत कोलाग्र ग्राम के एलाफ्स्य गोत्रिय ब्राह्मण रुद्रसोम की सुशील भार्या मनोरमा की कुक्षी से हुआ था । इनका पिता वेद वदोगै सर्व शास्रों से पारंगत था। आपके भाई का नाम सुहस्ती था । जब दोनों भाई शैशकावस्था को सुखपूर्वक बिता चुके तो इनके पिताने अध्ययन के निमित्त पाटलीपुत्र नगर में भेजा । उधर आचार्य स्थूलभिद्र सूरिः उपदेश देते देते पाटलीपुत्र के उद्यान में पधारे हुए थे। नगर के बाहिर घूमते हुए दोनो भाइयोंने प्राचार्य को देखा तो कुतुहल के हेतु से साथ हो गये । उद्यान में पहुंच कर उन्होंने क्या देखा कि सहस्रों बी पुरुष देशनामृत का पान करने के हित चारों ओर से श्रा भाकर अपने अपने स्थान पर बैठ रहे हैं । ये दोनों भाई भी भाषण सुनने के उद्देश्य से एक ओर बैठ गये। • आचार्यश्रीने धर्मलाभ सुनाकर व्याख्यान प्रारम्भ किया । मापने अपने मूदु भाषण से श्रोताओं के मन पर इस प्रकार प्रभाव
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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