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जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा.
डाला कि सब मंत्र मुग्ध की नाई टकी टकी लगा कर आचार्यश्री की ओर देखते हुए सुखप्रद श्रुत सुधा का पान करने लगे । श्रपने अपने उपदेश में संसार की असारता सिद्ध की तथा आत्मा के उद्धार का सरल एवं शीघ्र उपाय बताया ! इस उपदेश के फल स्वरूप महागिरि और सुहस्तीने संसार से वैरागी हो आचार्यश्री के पास दीक्षा लेना चाहा । दीक्षा लेने के बाद दोनों मुनि शास्त्रों का अध्ययन कर धुरंधर विद्वान कहलाये । आर्य महागिरि की बुद्धि तो विशेष चमत्कार प्रदर्शित और विशाल थी । इसी कारण से महागिरि को शीघ्र ही आचार्यपद प्राप्त हो गया । आचार्य महागिरि सूरिः जिन शासन की बागडोर अपने हाथ में लेते ही उस के प्रचार में तत्पर हुए। आपने जैन शासन का खूब अभ्युदय किया। बाद आपने जिन कल्पी तुलना करने के निमित्त अपने बहुलं या बलस्सिहा आदि चार शिष्यो के साथ जंगल में प्रस्थान किया साधुओं की सार संभाल के निमित्त पीछे आर्य सुहस्ती मुनिराज को रख दिया । श्राचार्य महागिरि घोर तपस्वी एवं भिन्न भिन्न ( श्रभिग्रह) प्रतिज्ञा द्वारा अपूर्व त्याग का अभ्यास कर रहे थे। आपने आसन समाधी और ध्यान मौन या अध्यात्म चिंतवन से जिन कल्पी की तुलना रूप मनोरथ को सिद्ध करते हुए, कलिङ्ग देश के भूषण तुल्य कुमार गिरि तीर्थ पर आपने निवृति मार्ग का पूर्ण अवलम्बन लिया । अन्त में वीरात् २४५ सम्बत् में अनशन तथा समाधि पूर्वक स्वर्ग वास किया । आपके शिष्यो में बलिस्सह मुनि अपने परिवार सहित स्थिवर कल्पी में सम्मिलित हुए। इधर बाहुल मुनि अपने