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प्राचार्यश्री सुहस्ती सूरिः।
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साधुओं के साथ, जो जिनकल्पी की तुलना कर रहा था । पर वह तुलना आमहरूप नहीं थी। आप के स्वर्गधाम सिधारने के पश्चात् कितने ही वर्ष बाद आपस की ईर्षापुतिने उन सहभाव की प्रवृतियों को कदाग्रह का स्थान दे दिया जिसका कटु परिणाम यह हुआ कि बाहुल की संतानने जिनकल्पी मार्ग का आग्रह किया तथा बाल्लिस्सह की सन्तानने स्थिवर कल्पी का आग्रह किया जिस के फल स्वरूप में आगे चलकर जिन शासन की दो शाखाएं हुई वेताम्बर तथा दिगम्बर जो आज तक भी विद्यमान हैं। वह जिन शासन की तरक्की में रोड़ा रूप है। .
[१०] दश पट्टपर प्राचार्य सुहस्ती सूरिः महान् प्रभावशाली हुए । जब से आचार्य महागिरिने आप को शासन का भार संभलाया तब से प्राचार्य सुहस्ती सूरिः जैन धर्म के प्रचार में संलग्न थे। एक वार मगध देश में दुष्काल के कारण कई लोग भूख के मारे अपने प्राणों को छोड रहे थे । देशभर में हाहाकार मचा हुआ था तथापि जैन श्रावक अपनी गुरु भक्ति में पूर्ण अटल रहे क्योंकि वे अपने धर्म पर पूरी श्रद्धा रखते थे । वे जानते थे कि चाहे जैन गुरु प्राण त्याग दें तथापि अनीति का या अशुद्ध आहार कदापि ग्रहण नहीं करेंगे । एक वार आचार्यश्री के दो शिष्य किसी भावक के यहां भोजन लाने के हित पधारे। गृहप्रवेश करने के बाद द्वारपर एक भिक्षुक आ निकला । वह भूख के मारे इतना व्याकुल था .के उसकी ओर देखनेसे मालुम होताथा कि वह नर अस्थि-कंकाल मात्र है। हड़ियांकी गिन्ती कीजा सकती थी कारण कि उस मि