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________________ ( १४०) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. चुके शरीरमें माँस आदि कुछभी अवशेष नही रहाथा । जब श्रावकने जैन मुनियोंको मोदक आदि मिष्टान्न दिये तो मुनि महाराज उपाश्रयकी ओर रवाना हुए । उस भिक्षुकने मुनिद्वयसे याचनाकी कि आप परोपकारी साधु हैं अपनी भिक्षाका कुछ अंश मुझे भी दीजियेगा । उभय मुनियोंने उत्तर दिया कि बिना गुरूकी आज्ञा के हम तुम्हें कुछभी नहीं देसकते । वह भिक्षुक इस आशा से कि कदाचित इनके गुरू कृपा कर मुझे कुछ प्रदान करेंगे; साधु युगल के पीछे पीछे हो लिया । ___उपाश्रय पर पहुँच कर युगल मुनियाँने गुरु महाराज को सब वृतान्त कह सुनाया । आचार्यश्रीने उपयोग लगा कर देखा तो मालूम हुआ कि इस प्राणी से कुछ शासन को लाभ होने की सम्भावना है तो आचार्यश्रीने उसका गोत्र, कुल आदि पूछ कर कुछ आवश्यक बातें जान लीं । आचार्यश्रीने भितूक से पूछा कि यदि तूं दीक्षा ले ले तो हम तुमे इच्छित भोजन दे सकते हैं। उसने भी प्रसन्नता पूर्वक यह बात स्वीकार कर ली । उसने दीक्षा ग्रहण कर के जैन धर्म पालने का कार्य प्रारम्भ किया । कई दिन की इच्छाएँ पूर्ण हुई । वह पेट भर खाने लगा। यहाँ तक कि उसने आवश्यक्ता से अधिक मात्रा में भोजन किया जिस के फल स्वरूप वह अति सार रोग का शिकार हुआ। जब यह मुनि रोगी हुआ तो प्राचार्य आदि मुनिवरोंने यथा योग्य वैयावच की। इस प्रकारकी सेवा से सन्तुष्ठ हो कर उस भिक्षुकने जैनों
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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