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________________ ( ५० ) जैनजातिमहोदय प्रकरण दूसरा. ( २१ ) चोथी नरकमें गया वहांसे अनेक भव भ्रमन करता हुवा ( वह इस स्थुल भवों की गीनती में नहीं है ) ( २२ ) मनुष्यका भव किया, वहांपर अनेक सुकृत कार्यो द्वारा भविष्यमे चक्रवर्ति होने के पुन्योपार्जन कर वहांसे ( २३ ) विदेहक्षेत्र मुका राजधानी के धनञ्जय राजाकी धारणराणिकी कुक्षीसे चौदह स्वप्न सूचित प्रियमित्र नामका पुत्र हुवा क्रमशः षट खण्ड विजयकरचक्रवर्तिपद भोगवके पोट्टिलाचार्य के पास दीक्षा ले चिरकाल चारित्रपाल अन्त में वहांसे ( २४ ) महाशुक्र देवलोक में देवपने उत्पन्न हुवे । फिर (२५) ईसी भारत भूमिपर छत्रिका नगरी के राजा जय - शत्रुकी भद्रा राणिकी कुक्षीसे नन्दन नामक पुत्र हुवा क्रमशः राजपद भोग के जैनाचार्य पोटिल के पास दीक्षा ले ज्ञानाभ्यास के पश्चात् जावजीव तक मासमास क्षामणके पारणा करते हुवे वीसस्थानक जो तीर्थकर पद प्राप्त करने के कारणोंकी श्राराधना कर तीर्थकर नाम कर्मका धन बन्धनकर एक लक्ष्श वर्ष दीक्षापाल अन्तमें समाधिपूर्वक कालकर । (२१) प्रणितनाम दशवेदेवलोकमे देवपने उत्पन्न हुवे वहांसे सतावीसवे भवमे भगवान् महावीर प्रभु हुवे वह हमारे कल्यान सदैव कारणभूत है भगवान् महावीरका जन्म | नन्दनमुनिका जीव दशवाप्रणित देवलोकसे वीस सागरोपमकि स्थिति पूर्ण कर तीन ज्ञानसंयुक्त क्षत्रियकुण्ड नगरके राजा सिद्धार्थ
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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