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भगवान् महावीर.
(५१) कि त्रिशला गणिके रत्नकुलीमे चौदह स्वप्नसुचित अवतीर्ण हुवे जिस स्वप्नोके शुभ फल गजा सिद्धार्थ व स्वप्नपाठकोंने कहा. माताको अनेक शुभ दोहले उत्पन्न हुवे जिनको राजा सिद्धार्थने सहर्ष पूर्ण किये. इत्यादि प्रानन्दोत्सवके साथ गर्भ दिन पूर्ण हुवे । इधर दशों दिशाएं फूल उठी प्रसन्नताका पवन चारो ओर चलने लगा। आकाशसे पुष्पोंकी वृष्टि होने लगी. सुगन्धित पदार्थसे जगतका बायुमण्डल में शान्तिका सञ्चार हो रहाथा सारा संसार हर्षनादसे खुल उठा, सर्वत्र सुंदर निमित ओर शुभ शुकनोंका स्वाभाविक प्रादुर्भाव हुवा वह दिन था चैत्र शुक्ल त्रयोदशी चन्द्र हस्तोत्तरा नक्षत्रमें मोर विजय मूहुर्त वरत रहाथा सवग्रह अनायासे उच्च स्थान भोगव रहेथे. ठीक उसी समय महागणि त्रिशलादेवीने सिंह का लाच्छन ओर सुवर्ण क्रान्तिवान् पुत्रको जन्म दिया जिस रात्रिमें भगवानका जन्म हुवा उसी रात्रिमें देवतोंने राजा सिद्धार्थके वहां धनधान्य वस्त्रभूषणमें वृद्धि करी संसारभरमें शान्तिका साम्राज्य छा गया नरक जैसे महान् दुःखी प्राणियोंको भी सुखी होनेका समय मिला । छप्पनादिग् कुमारिकाभोने सुतिका कर्म किया । चोसट इन्द्र ओर असंख्य देवदेवियोंने सुमेरू गिरिपर भगवानका जन्म महोत्सव किया दूसरे दिन महाराजा सिद्धार्थने पुत्र लन्मकी खुशालीमे बन्दीखानेके केदियोंको छोडवाया. तोलमाप बढाया नगरमें स्थान स्थानपर महोत्सव और जिनमन्दिरोंमे सौ-हजार भोर लक्ष द्रव्यवालि पूजाए रचाइ तीसरे दिन सूर्य चन्द्र दर्शन, छटे दिन रात्रि जागरण, ग्यारवे दिन प्रसूचि कर्म दुर कर बारहवे दिन न्याति जाति सगे संबंधीयोको वस्त्राभूषण पुष्पमाला संबो