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________________ (५२) जैनजातिमहोदय प्रकरण दूसरा. लादिसे सत्कार कर अपने पुत्रका नाम 'वर्द्धमान' रखा जो कुलमे प्रव तीर्ण होतेही राजवदेशमें धनधान्य राजकोष्टागर सुखशोभाग्यादि एवं सर्व प्राकरकी वृद्धि हुईथी क्रमशः भगवान् महावीर बीजके चन्द्रकि माफीक वृद्धि होने लगें। भगवान महावीरकी बाल्यावस्था । ___ भगवान महावीरकि बाल्यावस्थाके विषय खास कर ऐसे उल्लेख बहुत कम मिलने हे तथापि आपकी दिव्य क्रान्ति तप तेज उतम प्रतिभा और अगाध शक्ति अलौकिक ही थी जन्म समय आपने एक अंगुष्ठसे मेरू कम्पाया जिससे मुग्ध हो ईन्द्रने आपका वीर-महावीर नाम रखा, बच्चपनमें प्रामली वृक्षकी बालक्रिडामे आपश्रीने देवका परा. जय किया. विद्या अध्ययनके विषय तो बडे बडे अध्यापक श्राश्चर्यमे डुब गये इन्द्र के किये हुवे प्रश्न और प्रभु महावीरके दिये हुवे उत्तरोंसे ही जिनेन्द्र व्याकरणका जन्म हुवा जैनाचार्य शाकटायनदि भोर भी पाणिनी जैसेनेभी उसका अनुकरण किया, भगवानकि दिनचर्याके विषय भी स्पष्टरूप उल्लेख नहीं मिलता है पर कल्पसूत्रादि ग्रन्थोमे राजा सिद्धार्थकी दिनचर्या जैसे वह प्रातः समय व्यायामशालामे कसरत कर सौहजार-लक्षपाकादि तैलका मर्दन और स्नान मञ्जनकर देवपूजनके पश्चात् राजसभामे खुद इन्साफ करतेथे राजासिद्धार्थ जैसे नैतिज्ञ था वैसेही वह धर्मज्ञ भी था कारण राजा सिद्धार्थ मोर त्रिशलादेवी भगवान पार्श्वनाय के श्रावक अर्थात् अनुयायि थे उनकि वीरता उदारता और दिनचर्या इतनी तो उत्तम रितीका था कि उनका अनुकरण करनेवालोका जीवन सुख व शान्तिमय बन जाता है पिताका संस्कार पुत्रके अन्दर होना एक
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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