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जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा.
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द्रष्टि से मुसकराते हुए बोले कि नरेन्द्र ! आप जरा भी दीलगीर न हो, आपकी तरफंसे अपराध नहीं हुआ परन्तु मुनियोके ठहरने लायक सुंदर मकानादिककी प्राप्ति होनेसे उलटा सत्कार हुआ है। देखीये ये सब मुनिलोग तपस्वी है इस लिये इनको भोजनकी श्र वश्यक्ता नहीं है । इतने पर भी आपके दीलमें किसी तरह का रंज होता हो तो आपको हम विश्वास दिलाते हैं कि - साधु लोग सदा क्षमाशील होते हैं अतः उनकी तकलीफकी संभावना करना यह व्यर्थ है । हे राजेन्द्र ! आपकी धर्मभावना पर हमें खूब संतोष है । और अधिक हर्ष तो इस बातका है कि आप सज्जन धर्म श्रवण निमित्त यहांपर संमिलित हुए हैं । यह हमारा व्यापार है और इसी कार्यके लिये हम लोगोंने अपना सारा जीवन अर्पण कर दीया है | अपने कार्यसिद्धिके लीये अनेकों कठीनाइयों का सामना कर हुए हमलोग इससे भी विकट भूमिमें परिभ्रमण कर मक्ते हैं इत्यादि समाधानीके पश्चात् सूरिजी महाराजने अपना व्याख्यान प्रारंभ किया:
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सुझ श्रोतागण ! इस अपार यानि अनादि अनंत संसार में जीतने चराचर जीव है यह सब अपने २ पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मानुसार सुख-दुःख भोगव रहे है. शुभ कार्य करनेसे सुखकी प्राप्ति और अशुभ कार्य करनेसे दुःखकी प्राप्ति भवान्तर में अवश्य होती है । इस मान्यता में किसी शास्त्र के प्रमाणकी भी आवश्यक्ता नहीं है कारण कि आज चर्मचक्षुवाले मनुष्य भी उन शुभाशुभ