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________________ (३८) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. उपर हो के निकल रहा था वह सूरिजी के सिर पर आते ही रूक गया. रत्नचूड विद्याधरनायकने सोचा की मेरा विमान को रोकनेवाला कोन है. उपयोग लगाने से ज्ञात हुवा कि मेंने जंगम तीर्थ की श्राशातना करी यह बुरा किया, मट वैमान से उतर, निचे श्रा, सूरिनी को वन्दन नमस्कार कर अपना अपराध की माफी मागी. सूरि नीने धर्मलाभ दीया और अज्ञातपणे हुवा अपराध की माफी भी दी. तत्पश्चात् रत्नचूड विद्याधर सपरिवार सूरिजी का व्याख्यान श्रवण करने को बेठ गया आचार्यश्रीने वैराग्यमय देशना दि संसार की सारता और मनुष्य जन्मादि उत्तम सामग्री की दुर्लभता बतलाइ. इत्यादि विद्याधर नायक के कोमल हृदय पर उपदेश का असर इस कदर हुवा कि वह संसार त्याग सूरिजी महाराज के पास दीक्षा लेने को तय्यार हो गया परंतु एक प्रश्न उनके दीलमें ऐसा उत्पन्न हुवा की वह झट खडा हो सूरिजीसे कहने लगा कि " सुगुरु मम विज्ञापयति मम परम्परागत श्रीपार्श्वनाथजिनस्य प्रतिमास्ति, तस्यवन्दनो मम नियमोऽस्ति, सारावणलंकेश्वरस्य चैत्यालय अभवत्. यावत् गमेण लंका विध्वंसिता ताबद्द मदीया पूर्वजेन चन्द्रचुड नरनाथेन वैताव्य आनीता सापतिमा मम पाङस्ति तया सह अहं चारित्रं ग्रहीष्यामि" भावार्थ-जिस समय गमचंद्रजीने लंकाका विध्वंस किया था उस समय हमारे पूर्वज चन्द्रचुड विद्याधरोंका नायक भी साथमें था अन्योन्य पदार्थोके साथ रावणके चैत्यालयसे लीलापन्ना की पार्श्वनाथ प्रतिमा वैतान्यगिरिपर ले आये थे वह क्रमशः आज मेरे पास है और
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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