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राजा प्रजा की प्रार्थना. . (७३) गुंझ उठा देखते देखतेमें चक्रेश्वरी अंबिका पदमावती और सिद्धायकादि देवियों सूरिजीको बन्दनार्थ आई वहभी नम्रता भावसे वन्दन किया राजा मंत्री और नागरिक लोग यह दृश्य देख चित्रवत् हो गये अहो ! हम निर्भाग्य है कि, ऐसे अमूल्य रत्नको एक कंकर समज तिरस्कार किया इस पापसे हम कब और कैसे छुटेगें ! राजा और नागरिक लोग जैन धर्म स्वीकार करनेमें इतने आतुर हो रहे थे कि सब लोगोंने जनायों व कण्ठियों तोड तोडके सूरिजी के चरणोंमे डालदी और अर्ज करी कि भगवान् श्रापही हमारे देव हे आपही हमारे गुरु है आपही हमारे धर्म दाता आपके वचन ही हमारे शास्त्र है हम तो आजसे आप और आपकी सन्तानके परमोपासक है इतनाही नही पर हमारी कुल संतति भविष्यमें सूर्यचन्द्र पृथ्वीपर रहेगा वहांतक जैनधर्म पालेगा और आपकी मन्तानके उपासक बने रहेगें यह सुनतेही चक्रेश्वरी देवि रत्नका सुन्दर थालके अन्दर वासक्षेप हाजर कीया, सूरिजीने राजा उपलदेव, मंत्रि उहड, और नागरिक क्षत्रिय ब्राह्मण वेश्यकों पूर्व सेवित मिथ्यात्वकी आलोचना करवाके महा ऋद्धि सिद्धि वृद्धि संयुक्त महामंत्रपूर्वक विधि विधान के साथ वासक्षेप देकर उन भिन्नभिन्न वर्ण की तुटि हुइ सक्तियों के तंतू एकत्र कर एक "महाजनसंघ" स्थापन किया, उस समय अन्य देवियों के साथ चामुंडा भी वहां हाजर थी वह बीच में बोल उठी कि हे भगवन् ! आप इन सब को जैन धर्मोपासक बनाते हो वह तो बहुत अच्छा है पर मेरा कड्डके मड्डके न छोडावे, ? सूरिजीने कहा ठीक है । देवि! तुमारा कड्डका मड्डका न छूडाया जावेगा. इस पवित्र दृश्य को देख उन विद्याधरोंने