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. श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला पुष्प नं. १०५.
श्री रत्नप्रभसूरीश्वरपादपोम्यो नमः
अथ श्री जैन जाति महोदय.
तीसरा प्रकरण. नत्वा इन्द्र नरेन्द्र फणीन्द्र, पूजित पाद सदा सुखदाई । कैवल्यज्ञान दर्शन गुणधारक, तीर्थकर जग जोति जगाई ॥ करुणावंत कृपाके सागर, जलता नागको दीया बचाई । वामानंदन पार्श्वजिनेश्वर, वन्दत 'ज्ञान' सदा चितलाई ।।
पालित पञ्चाचार अखण्डित, नौविध ब्रह्मव्रतके धारी । करी निकन्दन चार कषायको, कब्जे कर पंच इन्द्रियप्यारी॥ पञ्च महाव्रत मेरु समाधर, सुमति पंच बडे उपकारी । गुप्ति तीन गोपि जिस गुरुको, प्रतिदिन वन्दित 'ज्ञान' आभारी॥
संस्कृत दिव वाणि प्राकृत, रची पट्टावलि पूर्वधारी । तांको यह भाषान्तर हिन्दी, बाल जीवोंको है सुखकारी । सरल भाषाकों चाहत दुनियो, परिश्रम मेरा है हितचारी । ओसवंस उपकेश गच्छते, प्रगट्यो पुण्य 'ज्ञान' जयकारी ॥