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जनजाति महोदय. भी मैंने इस कार्य में विशेष प्रयत्न करना प्रारम्भ किया । मुझे विशेष सामग्री उपकेश गच्छीय यतिवर्य लाभसुन्दरजी, माणकसुन्दरजी
और प्रेमसुन्दरजी से प्राप्त हुई। क्योंकि बीकानेर के उपाश्रय इन्हीं के अधिकार में हैं जहाँ बहुत प्राचीन शास्त्रों का विपुल संग्रह है । इस के अतिरिक्त नागोर और खजवाने आदि से मुझे इतनी सामग्री उपलब्ध हुई कि जिस ग्रंथ को मुझे १००० पृष्ट बनाने की आशा थी वह अब ५००० पांच हजार पृष्टों में पूरा होगा ऐसा संभव है और न मालूम इम से भी यह ग्रंथ कितना और बढ़ जाय कारण जैन जाति का विस्तार और क्षेत्र बहुत विस्तृत है मानों कोई महान रत्नाकर हो ।
इस पुस्तक को शीघ्र तैयार करने की इच्छा और भावना रखता हुआ भी मैं इस कार्य को शीघ्र न कर सका। इसी कारण मुझे दो विज्ञपत्तियों निकालनी पड़ी। देरी होने के कई कारण हैं प्रथम तो मारवाड़ प्रान्त में ही मेरा अधिकतर विहार होता है जहाँ यंत्रालय की सुलभ व्यवस्था नहीं है तथा इस प्रदेश में साधुओं की भी कमी रहती है अतएव व्याख्यान आदि से इच्छानुसार समय नहीं मिलता है तथा शिक्षा में यह प्रान्त पिछाड़ी है अतएव ऐसे विषय की ओर प्रायः कर के उपेक्षा ही है । यहाँ के अधिकतर लोग तो केवल बाह्य आडम्बरों की ओर ही आकर्षित होते हैं तथा मेरा स्वास्थ्य भी कई अरसे तक कार्य करने के अनुकूल नहीं रहता था । उपरोक्त कारणों से कार्य में स्वाभाविक ही विलम्ब हो गया है तथापि यह बात क्षन्तव्य है।