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________________ जैनेतर विद्वानोंकी सम्मतिए. (५५) रा० रा. वासुदेव गोविन्द आपटे बी० ए०, इन्दोर निवासी के व्याख्यान का सारांश* जिस में वे सब से पहिले एक सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्रीमद्भटाकलंक देव के निम्न लिखित श्लोक को पढ़ कर और उस का अर्थ समझा कर उस के महत्व और निष्पक्षता पूर्ण भावों को दर्शाते हैं:(१) यो विश्वं वेद वेद्यं जनन जलनिधेङ्गिनः पारदृश्वाः । पौर्वा पर्या विरुद्धं वचन मनुपमं निष्कलंकं यदीयम् ॥ तं वंदे साधुवंद्यं सकल गुण निधि ध्वस्त दोष द्विषतम् । बुद्धं वा वर्द्धमानं शतदलनिलय केशवं वा शिवं वा ॥ • अर्थात् जानने योग्य ऐसे सम्पूर्ण विश्वको जिसने जाना, संसाररूपी महासागरकी तरंगें दूसरी तरफ तक जिसने देखी, जिस के वचन परस्पर अविरुद्ध, अनुपम ओर निर्दोष हैं, जो सम्पूर्ण गुणों का निधि साधुओं करके भी वन्दनीय है, जिसने राम द्वेषादि अठारह शत्रुओं को नष्ट कर दिया है और जिस की शरण में सेंकड़ो लोग आते है, ऐसा जो कोई पुरुष विशेष है उस को मेरा नमस्कार हो; फिर चाहे वह शिव हो, ब्रह्मा हो, विष्णु हो, बुद्ध हो अथवा वर्द्धमान ( महावीर ) हो । पूर्वोक्त श्लोक में श्री मद्भट्टाकलंक देव ने ऐसी स्तुति की है । (२) हिपालय से लेकर कन्याकुमारी तक किंबहुना उस . * यह व्याख्यान उपरोक महाशय ने बम्बई के हिन्दु युनियन क्लब में डीसेम्बर १:०३ ई० मे दिया था।
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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