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जैन जातिमहोदय प्र० प्रकरण.
(१६) जैन धर्म की सार शिक्षा यह है :१ – इस जगत का सुख, शान्ति, और ऐश्वर्य मनुष्य के
चरम उद्देश्य नहीं हैं। संसार से जितना बन सके निर्लिप्त रहना चाहिये ।
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- आत्मा की मंगल कामना करो ।
३ – तुम जब कभी किसी सत्कार्य के करने में तत्पर हो तब तुम कौन हो और क्या हो यह बात स्मरण रक्खो ।
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- यह धर्म परलोक, (मोक्ष) विश्वासकारी योगियोंका है। ५ - सांसारिक भोग विलास की इच्छायें जैनधर्म की विरोधनी हैं ।
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६—अभिमान त्याग, इस धर्म की भित्तियां हैं ।
स्वार्थ त्याग और विषय सुख त्याग
(१७) जैनधर्म मलिन आचरण की समष्टी है, यह बात सत्य नहीं है दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों श्रेणियों के जैन शुद्धाचरणी हैं।
(१८) जैनधर्म ज्ञान और भाव को लिए हुए है और मोक्ष भी इसी पर निर्भर है ।
( १९ ) जैन मुनियों की अवस्था और जिन मूर्ति पूजा उनका प्राचीनत्व सप्रमाण सिद्ध करता है ।