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________________ जैनेतर विद्वानोंकी सम्मतिए. ( ५३ ) (४) मदाभारत के सुविख्यात टीकाकार शांतिपर्व, मोक्षधर्म अध्याय २६३, श्लोक २० की टीका में कहते हैं: - यथा: अर्हत् अर्थात् जैन ऋषभ के चरित्र में मुग्ध हो गये थे । " ऋषभादीनां महायोगिनामाचा रे दृष्टाव अर्हतादयो मोहिताः " इस प्रकार जाना जाता है कि हिन्दू शास्त्रों के मत से भी भगवान् ऋषभ ही जैनधर्म के प्रथम प्रचारक थे । (५) डॉ० ० फुहरर ने जो मथुरा के शिला लेखो से समस्त इति वृत्तका खोज किया है उसके पढ़नेसे जाना जाता है कि पूर्व काल में जैनी ऋषभदेव की मूर्तियां बनाते थे । इस विषय का एपिफिया इंडिका नामक ग्रन्थ अनुवाद सहित मुद्रित हुआ है । यह शिला लेख दो हज़ार वर्ष पूर्व कनिष्क, हुवक, वासुदेवादि राजाओं के राजत्व काल में खोदे गये हैं । ( देखो उपरोक्त ग्रन्थ का भाग १, पृष्ठ ३८९, नं०८ व १४ और भाग २, पृष्ठ २६, २०७ नं० १८ इत्यादि ) । अतएव देखा जाता है कि दो हजार वर्ष पूर्व ऋषभदेव प्रथम जैन तीर्थकर कह कर स्वीकार किये गये हैं। महावीर का मोक्षकाल ईसवी सन् से ५२६ वर्ष पाईले और पार्श्वनाथ का ७७६ वर्ष पहले निश्चित है । यदि ये जैनधर्म के प्रथम प्रचारक होते तो दो हजार वर्ष पहिले के लोग ऋषभदेव की मूर्ति की पूजा नहीं करते ।
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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