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जैनसम.ज की वीरता.
(१७)
हजार दो हजार का जेवर मिल जायगा पर उनके शरीर स्वास्थ्य के लिए देखा जाय तो न व्यायामशाला, न कसरतशाला, न खान पान कि शुद्धता और न आबहवा की पर्वाह है जन्म से ही ऐसे कायरता के पाठ पढाए जाते हैं कि "बाबू सो जा बागड़ बोले" अगर अधिक रोने लग जाय तो अफीम ( विष ) दे दिया जाता है कि वह वञ्चों के खून को भी भक्षण कर जाता है उन के पालन पोषण में ऐसी कुरीतियों सिखाई जाती है कि वह लड़के ४-५ वर्ष के होते ही उन की माता को इस कदर तकलीफे दिया करते है कि माता उन से घबरा जाती है तब पढाई के नामपर बंधीखाने में डाल देते हैं भला! चार पांच वर्ष का बालक पढाई में क्या समझ सक्ता हैं, फिर मास्टरों की धमकी रूप चिन्ता उस के शरीर के बंधते हुए शक्ती तन्तुओं और ज्ञान तन्तुभों को भस्म कर देती है फिर तो उम्मर भर के लिए चाहे कायर कहो या नपुन्सक कहो।
अगर जैन समाज अपनी सन्तान को वीर बनाना चाहाती हों तो उन के लिए एक ऐसी शाला खोली जाय कि जन्म से
आठ वर्ष तक टाइम सर उस में हांसी खुसी खेल कूद कर शरीर को हष्ट पुष्ट बनावें और वीरता के संस्कार डाले जावे जो कि पहिले जमाने में हमारी मातामों के प्रत्येक गृह में ये शालाएं थी
आठ वर्षों के पश्चात् उस को ठीक हौंसला आ जा तब उस से पढाई करवाई जाय तो चार पांच वर्ष का लडका स्कूल में जा कर १२ वर्षों तक इतनी पढाई नहीं कर सकेगा जितनी की आठ वर्ष की आयू में भर्ती किया हुआ लडका ४ वर्षों में कर सकेगा। और