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___ आचार्यश्री ककसरि.
(९७) इतनी भी शुद्धि न रही कि आचार्यश्री पधार गये हैं। तब श्राचार्यश्रीने अष्टम तप प्रारम्भ किया । अष्टम तप के अन्तिम दिन की रात्रि के समय आचार्यश्री की सेवा में देवी उपस्थित हुई । फिर परस्पर इस प्रकार सँवाद हुआ ।
आचार्य- देवी होनहार हो चुका। अब प्रकोप करनेसे क्या लाभ है ? अब तो शांति करनाही तुम्हारा ध्येय होना चाहिये ।"
देवी:-" स्वामिन् , सचमुच इस नगर के लोग बड़े अज्ञानी हैं । पूज्यपाद प्राचार्य श्री रत्नप्रभसूरीने शुभ लग्नमें स्वयंभू प्रभु महावीर की मूर्ती की प्रतिष्ठा कगई । इसकी भाशातना कर के युवकोंने बड़ाअनर्थ किया है। यदि वह प्रतिष्ठा अभंग म्हती तो महाजन संघ का महोदय इसी प्रकार होता रहता जिस प्रकार की पिछले तीनसौ वर्षों से हो रहा है । आन, मान, मर्यादा सुख, सौभाग्य, गुण, गौरव, यश, वैभव, तप और तेज दिन ब दिन बढता जाता । इस समाज का उत्थान उत्कृष्ट रूपमें होता तथा संसारभरमें कोई अपर समाज ईससे बढ़ता तो क्या, पर बराबरी भी नहीं कर पाता । इस उच्छृखलता के कारण अब तो इस जाति का विनाश ही होगा। इन के भले कार्योंमें सदा रोड़ा अटका करेगा । फूट और फजीहत का इन के घरों में साम्राज्य रहेगा । इन को सम्पूर्ण सफलता अबसे कभी नहीं मिलेगी । इन के कार्यो पदपद पर विघ्न बाधाएं उपस्थित होंगी । इस आशातना के फल स्वरूप ये कई फिरकों में विभक्त