________________
(९८) जन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. हो कर आपसमें ही श्वान की तरह कट कट कर मरेंगे और मिटेंगे । ये दर दर अपमानित भी होंगे।"
आचार्य:-" देवी इतना कोप कग्ना ठीक नहीं। भवितव्यता ऐसी ही थी । भविष्यमें ज्ञानीने देखा होगा वैसा ही होगा। पर इस उपस्थित समश्या को हल करना अत्यावश्यक है । सब लोग तो बुरे हैं ही नहीं। कुछ लोगों के करतब के कारण सब कष्ठ - पावें यह अनुचित है । कुछ भी हो आखिर तो युवक नादान हैं । पूत कपून भले ही हों पर माता कुमाता क्याँ हो ?"
देवीः- " भगवन् ! आप की आज्ञा को शिरोधार्य करती हुं पर इन पापात्माओं ( अाशानना करनेवाले ) का मुख देखना मैं नहीं चाहती । ये लोग यदि यहाँ रहेंगे तो कदापि सुख उपलब्ध नहीं करेंगे।"
आचार्यः - यदि यह संत्र यहाँसे चला जायगा तो यह धन धान्यसे सम्पन्न देश, श्मशान तुल्य हो जायगा । यह नगर व्यापार का केन्द्र है। जब यह ऊजड़ हो जायगा तो सैकडों मन्दिरों में सेवा-पूजा कौन करेगा ? सोतो होगा ही पर आप की सेवा-पूजा उपासना भी तब कौन करेगा ? आवेशमें न पायो, जग सोचो और विचार करो।"
देवी:--" हाँ मैं यह जानती हूँ कि आज जो उपकेशपुर स्वर्ग की बराबरी करता है तो वह इस महाजन संघ ही के कारण; पर इन लोगोंने भी पाशातना जबरदस्त की है । खेर ! यदि आप कहें तो मैं इन्हें समाकर सकती हूँ। आप की आज्ञा मुझे सर्व प्रकारसे माननीय है।"