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(६०) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. द्रवती नगरी पहुंच गए । नगरी के बाहर किसी योग्य स्थान ( बगीचे ) में आचार्यश्री ठहर गए |
प्राचार्यश्री के साथ जो नवयुवक था वह इस भद्रावती नगरी के महाराजा शिवदत्त का लघु पुत्र देवगुप्त था। प्राचार्यश्री को बगीचे में ठहरा करके सब इंनजाम कर वह अपने पिता के पास गया और अपनी गुजरी हुई तमाम रामकहानी आद्योपान्त कह सुनाई । राजाने उन मठपतियों की घातक वृति पर बहुत ही अफसोस किया और अपने पुत्र को जीवितदान देनेवाले आचार्य प्रति भक्तीभावसे प्रेरित हो देवगुप्त को साथ ले आचार्यश्री के चरणों में हाजर हुआ नमस्कार कर बोला " भगवान् ! आपने मेरे पर बड़ा भारी उपकार किया इसका बदला तो मैं किसी प्रकार से नहीं दे सक्ता हुं पर अब आपके भोजन के लिए फरमावे कि आप भोजन बनावेंगे यां हम बनवा लावे." ।
आचार्य-न तो हम हाथसे रसोई बनाते हैं न हमारे लिए बनाई रसोई हमारे काम में आती है और हमको इस समय भोजन करना भी नहीं है। हम तमामो के तपश्चर्या है इधर सूर्य भी मस्त होने की तैयारी में है और सूर्यास्त होने के बाद हम लाग जलपान तक भी नहीं करते है।
देवगुप्त-भगवान् ! ऐसा तो न हो कि आप भूखे रहें और हम भोजन करे । अगर आप अन्न जल नहीं लें तो हम भी प्रतिज्ञा करते है कि हम भी न लेंगे वस देवगुप्तने भी उस रात्री