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________________ सूरिजीका व्याख्यान. ( २१ ) शेष सत्य - प्रचौर्यादि श्रहिंसाका ही विस्ताररूप हैं | इत्यादि अनेक प्रमाणोंसे सुरिजीने राजाको उपदेश दीया और कहा कि हे राजन् ! जैसा अपना जीवन अपने को प्यारा है वैसा ही सर्व जीवोंको अप पने प्राणप्रिय है पर मांस लोलुप कितने ही ज्ञान पापात्माओंने विचारे निरापराधि पशुओंको बलीदान करने में भी धर्म मान भद्रिक लोगों को घोर नरक में डालने का पाखण्ड मचा रखा है यद्यपि कितनेक देशोंमें सत्य वक्ताओं के उपदेशद्वारा ज्ञानका प्रकाश होने से यह निष्ठुर कर्म्म मूलसे नष्ट हो गया हैं पर मरूस्थल जैसे अपठित प्रान्त में सद्ज्ञान व उपदेश का प्रभाव से अज्ञात लोग इस कुपथाके किचड में फंसके नरक के अधिकारी बन रहे हैं इत्यादि । यह सुनते ही वह निर्दय दैत्य पाखांडी मांस लोलुपि यज्ञाध्यक्ष बोल उठे कि महाराज, यह जैन लोग नास्तिक है । वेदो को और ईश्वर को नहीं मानते है । दया दया पुकार कर सनातन यज्ञ धर्म का निषेध कर रहे है— इन लोगों कों क्या खबर है कि शास्त्रों में यज्ञ करना महान् धर्म और दुनियों में शान्ति होना फरमाया हैं। देखिये भगवान् मनुने क्या फरमाया है यथा यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयम्भुवा । . यज्ञस्य भूत्यै सर्वस्य, तस्मात् यज्ञेवधोऽबधः ॥ ३९ ॥ औषध्यः पशवोवृक्षास्तिर्यचः पक्षिणस्तथा । यज्ञार्थ निधानंप्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः ॥ ४० ॥ अर्थात् ब्राह्माने स्वयंही यज्ञ के लिये और सम्पूर्ण सिद्धि के निमित्त ही पशुवो को रचे है यज्ञ में औषधी-पशु-वृक्ष कूर्मादितीर्येच
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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