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जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. पश्चैतानि पवित्राणि, सर्वेषां धर्मचारिणाम् । . अहिंसा सत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुन वर्जनम् ॥१॥
अर्थात् अहिंसा सत्य अचौर्य ब्रह्मचार्य और मुर्छा त्याग यह पञ्च महाव्रत सर्वदर्शनानुयायी महापुरुषोंको बहुमान पूर्वक माननीय है। हे राजन् ! प्राणियोंकी दया करना ही मनुष्यका परम धर्म है देखिये श्रीकृष्णचन्द्रने भी यह ही फरमाया है।
यो दद्यात् कांचनं मेरूः, कृत्स्नां चैव वसुन्धरा । एकस्य जीवितं दद्यात् , न च तुल्य युधिष्ठिरः ॥
अर्थात् सुवर्णका मेरू और सम्पूर्ण पृथ्वीका दान देनेवाला भी एक जीवकों प्राण दान देने के बरावरी नहीं कर सकता है । और भी सुनिये ।
सर्वे वेदा न तत् कुर्युः सर्वे यज्ञाश्च भारत । सर्वे तीर्थाभिषेकाच, यत् कुर्यात् प्राणिनां दया ।।
अर्थात् हे अर्जुन ! जो प्राणियोंकी दया फल देती है वह फल न तो चारों वेदके पढनेसे, न सर्व यज्ञसे, न सर्व तीथों में स्नान करनेसे होता है इस लिये सर्व तत्त्ववेत्ता महर्पियोंने धर्मका लक्षण अहिंसा ही बतलाया है यथा--
अहिंसा सर्व जीवेषु । तत्त्वज्ञैः परिभाषितम् । इदं हि मूल धर्मस्य । शेषस्तस्यैव विस्तरम् ।।
हे नरेश ! इस भाग्पर संसारके अन्दर जीतने तत्त्ववेत्ता अवतारीक महापुरुष हुवे है उनने धर्मका मूल अहिंसा ही बतलाया है