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जैनजातिमहोदय प्र० तीसरा. जीव और कपिंजलादि पक्षीयों की जो बली दी जाति है. वह जीव यज्ञ मे मर के उत्तम जन्म को प्राप्त होता है इत्यादि. - इसपर सूरिजी महाराजने कहा हे महानुभावों, तुम लोग स्वल्पसा स्वार्थ के लिये मिथ्या उपदेश दे आप स्वयं क्यों डुबते हो
ओर विचार अज्ञ लोगों को अधोगति के पात्र क्यो बनाते हो अगर यज्ञ मे बली देने से प्राणि उत्तम गति (स्वर्ग) मे जाते हो तों
निहतस्य पशोर्यज्ञे । स्वर्ग प्राप्तिव दीर्घ्यते। . स्वपिता यजमानेन ।किन्तु तस्मान्नहन्यते ॥
अगर स्वर्ग मे पहुंचाने के हेतु ही पशवों को मारते हो तों पहले अपने मातापिता पुत्र स्त्रि व यजमान ओर तुम खुद ही स्वर्ग के लिये यज्ञ मे बली क्यों नहीं होते हो कारण आप लोगों को जीतनी स्वर्ग की अभिलाषा हैं उतनी पशुवों को नहीं है. पशु तो बिचारे पुकार पुकार कहते है-एक कवि का वाक्य.
नाहं स्वर्ग फलोपभोग तृषितो नाभ्यर्थितस्त्वमया। संतुष्टस्तृण भक्षणेन सततं साधो न युक्तं तवं ।। स्वर्गे यान्ति यादित्वया विनिहता यज्ञे ध्रुवं प्राणिनो। यज्ञं किं न करोषि मातृपितृभिः पुत्रैस्तथा बान्धवैः १ ॥१॥
भावार्थ यज्ञ में असंख्य पशुवों का बलीदान देनेवालों जरा हमारी भी पुकार सुनिये । हम लोग स्वर्ग फलोपभोग के प्यासे नहीं हैं और न हमने आप से यह प्रार्थना ही की है कि आप मुझे स्वर्ग मे पहुंचा दो। किन्तु हम तो मात्र तृण भक्षण से ही मग्न रहना चाहते है वास्ते मुझे मारना उचित नहीं है अगर हमे स्वर्ग मेजने