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(१४४) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. ध्येय था, जिस को हमने खो दिया है और इतर जातियोंने उस को बडे ही प्रादरसे स्वीकार कर लिया है।
आज हमारे अग्रेसरों और धनाढयोमें वह भावना नहीं रही हैं कि हम हमारे स्वधर्मी भाइयों को सुख दुःख में साथ दें, इनकी उन्नति में अपनी उन्नति समझे और इनके साथ वात्सल्यभाव रख टूटी हुई संघ श्रृंखला को फिरसे मजबूत बनावें । अरे ! स्वयं ऐसी. बुद्धि उत्पन्न न हो तो दूसरों के देखा देखी तो अवश्य अनुकरण करना चाहिए जैसा कि आप के पूर्वजोंकी संगठ्ठन शक्ति के देखादेखी अन्य लोग अपनि उन्नति कर रहे हैं। पर अभिमान गजारूढ सत्तान्धों को ऐसे सद्विचार श्रावे कहांसे ? अाज एक ही जैन नाम धराते हुए स्वधर्मी जैन बंधुनों को कष्टमें सहायता देना तो दूर रहा पर और भी संकटो में न डाले तो भी उन की मेहरबानी समझी जाती है. .
विचारभिन्नता यह एक स्वाभाविक विषय है पर उस को विरूद्ध के स्वरूपमें लेजाना यह एक मानसिक दुर्बलता है। वितराग जैसे समभावी धर्म मिलनेपर भी साधारण क्रियाकाण्ड या मंतव्य की विचार भिन्नता जो कि आपसमें मध्यस्थवृत्ति हितयुक्ती तत्वज्ञान द्वारा समजौता करने के बदले वैर विरोध क्लेश कदाग्रह के बीजारोपण कर चिरकाल अशान्ति फैला कर के समाज संगठुन को छिन्न भिन्न कर देना यही तो हमारी दुर्दशा का मुख्य कारण है।
महाजन जैसी होसियार बुद्धिमान चतुर कार्यकुशल और इज्जतदार कोमने दूसरों के विकट प्रश्नों की समस्या और उनके